Monday, September 5, 2011

શિક્ષક દિન : તિથિ નહીં પણ સંસ્કાર



यदि सबसे सुन्दर और मनोरम दृश्यों की बात की जाए तब निश्चित तौर पर लोग प्राकृतिक सौन्दर्य की
ही बात करेंगे | यह भी हो सकता है, कुछ लोगों को तितलियों के अथवा मोर पंखों के रंग लुभावने लगते हों, परन्तु मुझे सबसे अच्छा और प्यारा दृश्य लगता है "सवेरे सवेरे नन्हे मुन्ने बच्चों  का स्कूल जाना" | उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है ,मानो प्रकृति के सभी  रंग खुद जीवन्त हो उठे हों और धरती के विशाल कैनवास पर बिखर जाने को बेताब हों | मजे की बात यह होती है कि विभिन्न प्रकार के यह रंग आपस में मिलकर नित नए और अत्यंत मनोरम चित्र   बनाते हैं और अगले दिन पुनः ये सभी रंग नई चित्रकारी के लिए बेताब दिखते हैं |
       इस चित्रकारी की तूलिका के रूप में होते हैं ,इन बच्चों के शिक्षक / शिक्षिकाएं  | सारे बच्चे अपने मन में ढेरों  कौतूहल रुपी रंग भरे होते हैं,जिन्हें उनके शिक्षक / शिक्षिकाएं रंगों के गुण दोष के अनुसार तूलिका का चयन कराते  हैं,और बच्चों के माँ बाप उन चित्रों को देख देख मुदित होते रहते हैं |
       रंग कितने भी अच्छे हों ,परन्तु यदि तूलिका उचित प्रकार एवं दशा की न हो तो सभी रंग बिखर जाते हैं और चित्र भी खराब हो जाते  है | अर्थात सबसे अधिक महत्त्व प्रारम्भिक शिक्षक/शिक्षिकाओं का ही होता है | नन्हे बच्चों में अपने शिक्षक के प्रति सम्मान एवं विश्वास कूट कूट कर भरा होता है | घर जो बातें माँ बाप बताते है ,उन्हें वे नहीं मानते परन्तु यदि वही बातें स्कूल में शिक्षक/शिक्षिकाए  बता दें तो बच्चे तुरंत मान लेते हैं और अपने माँ बाप को भी मनवाने  को मजबूर कर लेते हैं | ऐसे में शिक्षक/शिक्षिकाओं का दायित्व अत्यंत अधिक हो जाता है |

         समाज में  शिक्षक/शिक्षिकाओं का स्थान सर्वोपरि और सम्मान जनक होना चाहिए और  शिक्षक/शिक्षिकाओं को भी अपने दायित्व के प्रति ईमानदारी बरतते हुए बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयास रत रहना चाहिए |   

            ऐसा  हो  जाए तो फिर आ ही जाएँ "तारे ज़मीं पर" |

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